वैदिक धर्म ही है एकात्म मानवधर्म

प्रो. श्रीराम अग्रवाल
प्रो0 पी0वी0काने ने अपने ग्रन्थ 'धर्मषास्त्र का इतिहास' में लिखाहै कि धर्म संस्कृत का एक एंसा षब्द है जिसका अंग्रेजी में सही अनुवाद किया ही नहीं जा सका है। धर्म को अंग्रेजी में नैतिकता, आदेष, पंथ या समुदाय विषेश के धार्मिकपरिपाटियों आदि के क्रिया या विषेशण रुपमें व्यक्त किया गया है। परन्तु वैदिक साहित्य में, निष्चित रुप से धर्म का अर्थ किसी पूजा विधान से नहीं है। वेदव्यास जी के अनुसार 'जो धरण करे वही धर्म' है। महाभारत के कर्ण पर्व में भीश्म पितामह कहते हैं कि 'धारणाद्वधर्मो धारयति प्रजाः।' अर्थात् वह धारणा जो धारण योग्य हो और जो सबको धारण कर सके वह जो मानव मात्र को संगठित रूप में रख सके, वही धर्म है। वृहदाकारण्योपनिशद में 'सत्याचरण को ही धर्माचरण' कहा गया है। एकात्म मानवदर्षन के प्रणेता पं0दीनदयाल उपाध्याय जी के अनुसार भी 'धर्म धरण करने से' होता है।उनके अनुसार 'धर्म एक बहुत व्यापक विचार है जो समाज को बनाए रखने के सभी पहलुओं से सम्बन्धित है। धर्म के मूल सिद्धान्त सत्य और सार्वभौमिक होते हैं।' धर्म की धारणा वैज्ञानिक तथ्यों तथा सत्यों पर आधारित रहती है। मानव धर्म समस्त प्राणियों के लिये समान होता है। किसी भी वस्तु का स्वाभाविक गुण उसका धर्म कहलाता है। यथा अग्नि का धर्म प्रज्वलन है, इसी प्रकार मानव का स्वाभाविक धर्म मानवता है। ऋग्वेद-10-5-6 कहता है'मनुर्भव' अर्थात् मानव बनो। 
मानव धर्म की प्रकृति भी व्यापक होती है। मनुस्मृति-6/10-में धर्म के दस लक्षण वर्णित किये गये हैं - 'घृतिः क्षमा दमोस्तेयं षौचमिन्द्रिय निग्रहः। घीर्विद्याा सत्य अक्रोधो दषकं धर्म लक्षणम।।' -अर्थात् धैर्य, क्षमा, दम (संयम), अस्तेय (अचैर्य), षुचि -आन्तरिक पवित्रता एवं वाह्य स्वच्छता-, इन्द्रिय विग्रह, घी (बुद्धि), विद्या, सत्य एवं अक्रोध ये धर्म के दस लक्षण हैं। पद्मपुराण में कहा गया है 'श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानी परेशां न समाचरेत' अर्थात् सुनो धर्म का सर्वस्व सार यही है कि जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल प्रतीत हो वैसा आचरण दूसरों के साथ न करो। पाष्चात्य दर्षन में भी 'गोल्डन रूल आॅफ एथिक्स' के नाम से 'एथिक््स आफ रेेसिप्रोसिटी' को धर्म के संदर्भ में स्वीकार किया गया है।प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्सटीन ने कहा था कि 'विज्ञान पुरुश को अपरिमित षक्ति तो दे देता है पर वह उसकी बुद्धि को नियंत्रित नहीं कर सकता। मनुश्य की बुद्धि को नियंत्रित कर उसे सही दिषा में प्रयुक्त करने की षक्ति केवल धर्म में होती है।' विज्ञान ने मानव को बहुत कुछ सिखाया है, परन्तु इसका दूसरा पक्ष भी है। प्रसिद्ध दर्षनषास्त्री डा0 सर्वपल्ली राधाकृृश्णन ने कहा था कि 'हमने पक्षी का तरह उड़ना और मछली की तरह तैरना सीखा पर इंसान की तरह जीना भूल गये।'
        भारतीय संस्कृति मंे धर्म, भौतिक सन्तुश्टि  को भी महत्व देता है। दीनदयाल जी ने अपनी अर्थनीतिमें ऋशि गौतम के ष्लोक का उल्लेख किया कि 'यतो अभ्युदयनिःश्रेयस सिद्धि,स धर्मः।'अर्थात् जिससे लौकिक भौतिक उन्नति-अभ्युदय- हो तथा जिससे पारलौकिक आत्मिक सुख-निःश्रेयस-की भी प्राप्ति हो, वही धर्म होता है।उन्होंने 'राश्टृचिंतन' में लिखा कि धर्म का काम है षरीर, मन, बुद्धि, आत्मा के बीच तालमेल बिठाना।वैसे ही एक व्यक्ति का, परिवार का, समाज का विचार भी है। यह तालमेल परिवार व समाज धर्म है। व्यक्ति और राश्ट्र के मध्य मेल बैठ सके, वह राश्ट्रधर्म है। राश्ट्र के साथ समस्त मानव समाज है। राश्ट्र ऊॅंचा उठ जाये और सारा मानव समाज का नुकसान हो जाये यह भावना भी अपेक्षित नहीं है। समाज का भी षरीर, दिमाग, बुद्धि व चित्ति (आत्मा) होती है। इनका एकात्म रूप राश्ट्र होता है।  
 वैदिक संस्कृति के अन्तर्गत इस मानव धर्म का परिपालन करने हेतु कुछ विषेश निर्देषाात्मक व व्यवहारिक व्यवस्थायें निर्धारित की गई हैं, जिनका उल्लेख उपाध्याय जी ने अपने एकात्म मानव दर्षन के वक्तव्यों में किया है। व्यक्ति की आयु अवस्थानुसार विकास के साथ आश्रम धर्म अर्थात् ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम एवं सन्यासाश्रम। यह व्यवस्था मानव जीवन की प्रारम्भिक आयु से मृत्युपर्यन्त जीवन-धर्म की व्यवस्था है। समाज समान संस्कृति एवं सभ्यता के समान उद्देष्यों के साथ एक समूह होता है। आवष्यक है कि समाज व्यवस्था संचालन हेतु जितने भी प्रकार के आवष्यक कार्य हैं, उन्हें समाज की सभी इकाइयों/व्यक्तियों में उनकी बुद्धि, ज्ञान, क्षमता, कौषल के अनुसार वितरित किया जाये ताकि वे समाज व राश्ट्र को यथा षक्ति अपना सर्वश्रेश्ठ योगदान दे सके। इस हेतु भारतीय संस्कृति में वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था की गई है। ज्ञानीजन, षूरवीर, उत्पादक-व्यवसायी-कृशक एवं कर्मकार (कारीगर, षिल्पकार सेवाकर्मी)।  ऋग्वेद-2-3-10- में कहा गया है-'वयमग्ने अर्वता वा सुवीयं, ब्रह्मणा व चितने या जना अति। अस्मांक द्युम्नमधि पन्च कृश्टियूच्चा स्वर्ण षुषुचीत दुश्टम्।।' अर्थात् हम मानव समुदाय में सर्वश्रेश्ठ बने। उच्च स्तरीय, श्रेश्ठ, पवित्र प्राप्त धन समाज के सभी पन्चों (ज्ञानी, पराक्रमी, वणिक, कर्मकर, निशाद-आदिवासी) मे सूर्य की तरह प्रकाषित हो। 
वर्ण व्यवस्था जन्मना नहीं थी। गुरूकुल में ब्रह्मचर्य आश्रम मंे प्रवेष कर षिक्षा दीक्षा के उपरान्त षिश्य की  पृवृत्ति, गुण, कार्य कौषल के अनूसार, गुरूजन, षिश्य को उस वर्ण में दीक्षित करते थे जिस वर्ण/कार्य हेतु, वह सर्वश्रेश्ठ आकलित होता था। गृहस्थाश्रम में अपने वर्णनानुसार पारिवारिक, सामाजिक, राश्ट्रीय एवं मानवीय उत्तरदायित्वों को अपने 'अर्थ-पुरुशार्थ' द्वारा पूर्ण कर, वह अपना सर्वस्व संतान, समाज व राश्ट्र को सौंपकर दायित्व मुक्त होकर, वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेष करता है।यह धन सम्पत्ति ऐष्वर्य किसका है। सब कुछ ईष, समाज/राश्ट्र का है। अतः 'इदं राश्ट्राय, इदं न-मम्।' अतः उसी को सौंप कर, क्रमषः सन्यासाश्रम अवस्था में, प्राकृतिक पंचतत्वों  में विलीन होकर प्रकृृति की इन दैवीय षक्तियों के ऋण से उऋण हो जाता है। अतः प्रत्येक प्राणी के जीवन के विभिन्न आयामों में, स्वयं अपने, अपने परिवार, समाज, राश्टृ, सृश्टि एवं प्रकृति के प्रति, अपने सम्पूर्ण षरीर, बुद्वि, मन एवं आत्मा के पूर्ण समुच्चय-एकात्मता- के साथ, पूर्ण निश्ठापूर्वक कर्तव्यपरायणता से ही धर्म, काम, अर्थ, मोक्ष ;दैहिक एवं दैविक संतुश्टिद्ध अर्थात् पुरुशार्थ ; पुरुश जीवन के अर्थद्ध की पूर्ति होती है।यही जन्म से मृत्युपर्यन्त, 'एकात्म मानवधर्म' है।  
        हमारे लिये समस्त सृश्टि-समश्टि, 'वसुधैव कुटुम्बकम'- एक कुटुम्ब है। हमारी संस्कृति में समश्टि रूप परिवार का आधार प्यार है जबकि पाष्चात्य सभ्यता के समश्टि रूप बाजार का आधार व्यापार है। सुश्री सुशमा स्वराज ने अपने एक वक्तव्य में कहा था कि जहां 'परिवार' होता है, वहां 'प्यार' होता है परन्तुजहाॅं 'बाजार' होता है, वहाॅं 'व्यापार' होता है। मनुश्य का कुछ न कुछ जीवन लक्ष्य होता है। पं0 जी की पुस्तक 'राश्टृजीवन की दिषा' के अनुसार मनुश्य के लक्ष्य का निर्धारण भौतिक सुख के अतिरिक्त, उसकी बुद्धि, भावना तथा आत्मा के सुख से भी होता है। इस प्रकार षरीर, मन, बुद्धि, आत्मा चारों प्रकार के सुख की प्राप्ति ही जीवन धर्म है जिसकी प्राप्ति अकेले सम्भव नहीं है। इसके लिये सामाजिक स्तर पर परस्परानुकूलता आवष्यक है। भारतीय संस्कृति का आधार, अद्वैतवाद 'अहम् ब्रह्मास्मि'- मैं ही ब्रह्म हॅंू, भारतीय वैदिक संस्कृति का महामंत्र है। 'सर्वम्् खल्विदं ब्रह्म'- सर्वत्र ही ब्रह्म है क्योंकि सभी में आत्मा विद्यमान है। अतः अपने आत्मिक सुख के लिये जो भी किया जाये, मैं ही उसका कर्ता, कर्म, कारक और लक्ष्य हॅंू। तब फिर संघर्श कैसा। जब द्वैत ही नहीं तो द्वन्द कैसा। पं0 जी के 'राश्टृधर्म' में प्रकाषित एक लेख के अनुसार, यह कर्ता-कर्म-क्रिया  की एकात्मता है। यही साधन व साध्य की एकात्मता है। यही एकात्ममानवदर्षन व्याश्टि-मानव- को क्रमषः परिवार, छोटे समूहों, समाज, राश्ट्र, विष्व, समाश्टि तथा परमेश्टी से आबद्ध रखता है। मानव के सम्बन्ध में हमारी दृश्टि समग्रतावादी रही है।एकात्म मानव अनेक एकात्म समश्टियों का एक साथ प्रतिनिधित्व करने की क्षमता रखता है। परन्तु उसके लिये आवष्यक है  कि  षरीर, मन, बुद्धि, एवं आत्मा का समुच्चय हो। पं0 जी के एक वक्तव्य के अनुसार, जब अर्थ तथा काम, धर्म (व्यापक अर्थों में) के सिद्धान्तों से पूर्ण किये जाते हैं तब वास्तविक सुख की प्राप्ति होती है। भारतीय संस्कृति की इस भावना, कि पूरी सृृश्टि में 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म' वही ब्रह्म-आत्मा विद्यमान है, जो मुझमें है, के कारण, हम सदैव सबके अर्थात््-विष्व कल्याण की कामना करते हैं। सभी सुख से रहें। सभी निरापद रहें। सर्वत्र मंगल ही मंगल हो। किसी को भी दुःख न हो।  'सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः।।सर्वे भद्राणि पष्यन्तु। मा कष्चिद््दुःख भाग्भवेत््।।'यही मानवता धर्म है। यही ब्रह्मान्डीय एकात्मवाद है। इसी का व्यश्टिरूप पं. दीनदयाल जी का 'एकात्म मानववाद' तथा समश्टिरूप  'एकात्म मानवतावाद' है।