रवि अटल
लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद छिन्न-भिन्न विपक्ष को पुनर्जीवित करने के लिए महागठबंधन के घटक दल एकजुटता दिखाने के लिए मिले, भविष्य की रणनीति बनायी। मीडिया को बताया भी कि महागठबंधन में हम सब एक होकर ही भाजपा-जदयू की संयुक्त ताकत से मुकाबला करेंगे। लेकिन बैठक खत्म, तो संकल्प भी हवा हवाई हो गए। महज दो घंटे बाद ही बयानों की जंग छिड़ने लगी। महागठबंधन में नेतृत्व पर तकरार है और साथी दल बेकरार है। वही हाशिये पर पड़े नेताओं की सक्रियता भी बढ़ गयी है। नेता के मुददे पर हम के प्रमुख जीतन राम मांझी का स्टैंट तो पुराना है, मगर ताजा संदर्भ कांग्रेस का है।
पिछले दो दशक से अंतर्कलह से परेशान रही प्रदेश कांग्रेस अब एक नई समस्या से ग्रस्त है। पार्टी में असमंजस पनपने लगा है। सबसे बड़ी दुविधा राजद को लेकर है। पार्टी नेता तय नहीं कर पा रहे है कि कांग्रेस को राजद के साथ मिलकर 2020 का विधानसभा चुनाव लड़ना है या नहीं। ऐसे मसलों पर प्रदेश अध्यक्ष का स्पष्ट रुख सामने नहीं आने के कारण वरिष्ठ नेताओं की बेचैनी बढ़ गयी है। असमंजस के कारण यह तय नहीं हो पा रहा है कि सभी 243 सीटों पर संगठन को लेकर सक्रियता बनाई जाये या उन सीटों पर ही फोकस किया जाये जिस पर पार्टी पिछले विधानसभा चुनाव में लड़ी थी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सदानंद सिंह ने लालू प्रसाद के उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव को अहंकार से बचने की नसीहत दी। यह भी कहा कि लोकतंत्र में जनाधार का आकलन नतीजे से होता है।
सदानंद के बयान का भावार्थ साफ है कि लोकसभा चुनाव में सबसे ज्यादा सीटों पर लड़कर भी राजद शून्य पर आउट हो गया, जबकि कांग्रेस ने एक सीट जीतकर लाज बचा ली थी। सदानंद सिंह अब उसी नतीजे को बिहार में फ्रंटफुट पर आकर सियासत करने की कोशिश में जुटी कांग्रेस के लिए आधार बनाना चाहते है। सदानंद के बयान को मांझी से जोड़कर देखा जा रहा है। इससे पहले मांझी ने कहा था कि नेतृत्व का मुद्दा अभी बरकरार है। तेजस्वी सिर्फ विधानसभा में विपक्ष के नेता है। उन्होंने यह भी जोड़ा कि पहले बिहार में राजग अपना नेता घोषित करे उसके बाद महागठबंधन भी कर देगा। मांझी पहले भी तेजस्वी को अपरिपक्व और अनुभवहीन बता चुके है। जबकि वीआईपी के मुकेश सहनी और रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा वक्त का इंतजार कर रहे हैं।
महागठबंधन के नेताओं में सबसे अधिक जिनका मन डोलता है वह हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी हैं। मांझी महागठबंधन में तो है लेकिन यहां वह संतुष्ठ नहीं है। मांझी ने इसे यह कहकर साबित कर दिया कि उनकी पार्टी अगले विधानसभा चुनाव में अकेले लड़ सकती है। इस बीच मांझी कई बार राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव से वार्ता कर चुके है। राजनीतिक हलकों में यह भी चर्चा है कि हम और यादव की जनअधिकार पार्टी का विलय भी हो सकता है। पप्पू यादव राजद से निष्कासित किये जाने के बाद कहीं कोई राजनीतिक घर नहीं पा सके हैं। वह अभी इस चिंता में लगे हैं कि कैसे उन नेताओं को एकजुट किया जाये जो राजग से अलग हैं। मांझी के अलावा वह पूर्व मंत्री रेणु कुशवाहा और पूर्व सांसद अरुण कुमार से भी मिले लेकिन इससे पहले कि वह कोई मोर्चा बनाते पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह ने रेणु कुशवाहा और अरुण कुमार को लेकर एक 'गैर राजनीतिक' मोर्चा बनाने का एलान कर दिया। मात खाए हुए नेताओं का टारगेट एक ही है कि कैसे नीतीश कुमार को मात दी जा सके। दिलचस्प बात यह भी है कि एक समय में प्रभावशाली नेता रहे नरेंद्र सिंह जदयू में है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले वह मांझी का साथ छोड़कर जदयू में वापस लौट आये थे। वहीं रेणु कुशवाहा जदयू छोड़ कर भाजपा में चली गयी थीं और अभी उसी पार्टी में हैं।
2020 में होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ जदयू-भाजपा गठबंधन के मुकाबले विपक्षी महागठबंधन को अपना अस्तित्व बचाने के साथ कई और मुकाबलों का सामना करना हैं। विधानसभा चुनाव में क्या महागठबंधन तेजस्वी के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगा, यह लाख टके का सवाल बना है। क्या लम्बे समय से मुख्यमंत्री बनने का सपना पाल कर राजनीतिक अभियान के साथ प्रयास कर रहे उपेन्द्र कुशवाहा तेजस्वी का नेतृत्व स्वीकार करेंगे? क्या कांग्रेस फ्रंटफुट पर खेलेगी? इन सवालों से निपटने पर ही महागठबंधन का अस्तित्व बचेगा और भविष्य बनने की उम्मीद जगेगी।