बद्री नाथ वर्मा
हिन्दी में काम करने की नसीहत दी जाती है। करोड़ों रुपये खर्च किये जाते हैं। कुछ लोगों की अच्छी खासी कमाई हो जाती है। पर हकीकत यही है कि हिन्दी में काम करने की नसीहत देने वाले व्यक्तिगत जीवन में अंग्रेजीदां कहलाने में खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। विडंबना ही है कि आजादी के 72 सालों बाद भी हिन्दी की स्थिति जस की तस है। अंग्रेजी की दासी। हिन्दी के भविष्य को लेकर निश्चित रूप से यह चिंता सता रही है कि आने वाली पीढ़ियों तक यह कितनी पहुंचेगी। फिलहाल तो आलम यह है कि सिर्फ हिन्दी जानने वालों को जाहिल, गंवार समझकर हेय या हिकारत की नजर से देखना हमारा शगल बन गया है। अब तो सूचना के अधिकार से यह भी पता चल गया है कि वास्तव में हिन्दी राष्ट्रभाषा है ही नहीं। बावजूद इसके 14 सितंबर यानी हिन्दी दिवस। एक सालाना जलसा भर। जी हां, हिन्दी दिवस महज एक रस्म अदायगी बन कर रह गया है। अंग्रेजों को तो हमने भगा दिया लेकिन अंग्रेजी मानसिकता से अब तक पीछा नहीं छुड़ा सके। टूटी फूटी ही सही अंग्रेजी की जानकारी हमें गर्व से भर देती है। चूंकि सितंबर महीने को हिन्दी के नाम से बुक कर दिया गया है इसलिए पिछले दो हफ्तों से हिन्दी सप्ताह व हिन्दी पखवारा के नाम पर लगातार अरण्यरोदन करने के बाद आज जगह जगह हिन्दी का मर्सिया पढ़ा जाएगा। विधवा विलाप होगा। हिन्दी को उसका हक दिलाने की लंबी चौड़ी बाते होंगी। एक से एक लच्छेदार भाषण होंगे। लेकिन अफसोस, बदलेगा कुछ भी नहीं। सब कुछ पहले की ही भांति अपने ढर्रे पर चल पड़ेगा। हिन्दी के नाम पर अरण्यरोदन करने वाले हिन्दी के ये व्यापारी एक साल की लंबी निद्रा में चले जाएंगे। इनकी ये कुंभकर्णी नींद फिर अगले सितंबर में ही टूटेगी। सितंबर महीने की शुरूआत के साथ ही हिन्दी के सौदागर सक्रिय होने लगते हैं। हिन्दी के दुकानदारों को इस महीने का खासतौर पर इंतजार रहता है। जगह-जगह हिन्दी की दुकानें सजने लगती हैं। हिन्दी सप्ताह, हिन्दी पखवारा व हिन्दी माह के नाम पर सजने वाली इन दुकानों में करोड़ों का वारा न्यारा होता है। यह एक ऐसा सालाना जलसा है जिस दिन हिन्दी के उत्थान के नाम पर हिन्दी की शोक गीतिका गाई जाती है। घड़ियाली आंसू बहाये जाते हैं। तो आइए हम भी पढ़ते हैं हिंदी का मर्सिया...